भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी में यह सवाल उठता है अक्सर, क्या करें! / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:15, 2 जुलाई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=हर सुबह एक ताज़ा गुलाब / …)
ज़िन्दगी में यह सवाल उठता है अक्सर, क्या करें!
बेसहारा, बेअसर, बेआस, बेपर, क्या करें!
जब क़यामत में ही होगा फैसला हर बात का
तू ही बतला हम तेरे वादे को लेकर क्या करें!
दूर मंज़िल, साथ छूटा, पाँव थककर चूर हैं
और झुकती आ रही है शाम सर पर, क्या करें!
हाथ डाँड़ों पर नहीं, किस्मत को कहते हैं बुरा
नाव खुद ही डूबती जाती, समुन्दर क्या करें!
पूछनी थी जब न पूछी बात, मुरझाये गुलाब
फूल अब बरसा करें उनपर कि पत्थर, क्या करें!