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न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी / गुलाब खंडेलवाल
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न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी
वो एक बात मेरी चेतना सँवार गयी
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने
जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी
किसी के रूप का उन्माद कैसे भूले कोई!
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
पलट के देखा जो तुमने लजीली आँखों से
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़े ही शान से आई थी, तार-तार गयी
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी
भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी