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धूप / रमेश तैलंग

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लि‍ए हाथ में फूल छड़ी।
आंगन में है धूप खड़ी।

झरने जैसी झरती है।
आंख-मि‍चौली करती है।

पर्वत पर चढ़ जाती है।
सागर पर इठलाती है।

दि‍न भर शोर मचाती है।
शाम ढले सो जाती है।