भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना सा हर शख्स हुआ है /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:03, 24 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=शेष बची चौथाई रा…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूना घर-आँगन लागे है ए साथी
बिन तेरे ना मन लागे है ए साथी

तुझसे थीं हर सिम्त बहारें, बिन तेरे
उजड़ा हर उपवन लागे है ए साथी

दुख से बोझिल साँसें रूकने को आतुर
थमती सी धड़कन लागे है ए साथी

नयनों का जल भूला सब मर्यादाएँ
जब चाहे बरसन लागे है ए साथी

जाने क्या है तुझसे दो दिन की यारी
जन्मों का बन्धन लागे है ए साथी