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अपनी ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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अपनी ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
जब भी मिलता हूँ मैं उनसे लब मेरे खुलते नहीं
अपने दिल की बात हंसकर मुझसे कह जाते हैं वो
मुस्कुरा कर बख्श देते हैं मुझे बेचैनियाँ
उनसे पूछो किसलिए दिल मेरा तड़पाते हैं वो
क्या कहा जाए बदन उनका है नागिन की तरह
जब भी बाहों में मेरी आते हैं बल खाते हैं वो
बेख़ुदी की इन्तिहाँ कहते हैं इसको दोस्तों
पी के सो जाता हूँ मैं आँखों से छलकाते हैं वो
सुनने वाले गीत सुनकर झूम उठते हैं सभी
गीत मेरा जब किसी महफ़िल में भी गाते हैं वो
दर हक़ीक़त जो भी हाज़िर है हबीब अमने 'रक़ीब'
अश्क़ ही पीते हैं अपने और ग़म खाते हैं वो