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झूलना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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आज निशीथ वेला में
प्राणों के साथ मरण का खेल खेलूँगा.
पानी झड़ी बाँधकर बरस रहा है,
आकाश अंधकार से भरा हुआ है,
देखो वारी-धारा में
चारों दिशाएँ रो रही हैं,
इस भयानक भूमिका में संसार तरंग में
मैं अपनी डोंगी छोड़ता हूँ;
मैं इस रात्रि-वेला में,
नींद की अवहेलना करके बाहर निकल पड़ा हूँ .
आज हवा में गगन में सागर में कैसा कलरव उठ रहा है.
इसमें झूलो,झूलो!
पीछे से हू-हू करता हुआ आंधी का पागल झोंका
हँसता हुआ आता है और धक्का मरता है,
मानो लक्ष-लक्ष यक्ष शिशुओं का शोर-गुल हो.
आकाश में पाताल में पागलो और मदमातों का हो-हल्ला हो.
इसमें झूलो-झूलो!