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दीदी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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आवा लगाने के लिये नदी के तीर पर
मजदूर मिट्टी खोद रहे हैं.
उन्हीं में से किसी की छोटी-सी इक बिटिया
बार-बार घाट पर आवा-जाई कर रही है,
कभी कटोरी उठाती है,कभी थाली,
कितना घिसना और मांजना चला है!
दिन में बीसियों बार दौड़-दौड़ कर आती है,
पीतल का कंगना पीतल की थाली से लगकर
ठन-ठन जता है.
दिन-भर काम-धंधे में व्यस्त है.
उसका छोटा भाई है--
मुड़ा हुआ सिर,कीचड़ से लथ-पथ,नंगा-पुंगा,
पोषित पंछी की तरह पीछे आता है,
और बैठ जाता है दीदी की आज्ञा मानकर,धीरज धरकर
अचंचल भाव से नदी से लगे ऊँचे टीले पर
बच्ची वापिस लौटती है,
भरा हुआ घड़ा लेकर
बाईं कांख में थाली दबाकर
दाहिने हाथ से बच्चे का हाथ पकड़कर
काम के भार से झुकी हुई
माँ की प्रतिनिधि है यह अत्यंत छोटी दीदी ||