भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पंचम /गुलज़ार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:57, 27 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार |संग्रह=रात पश्मीने की / ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

याद है बारिशों का दिन पंचम
जब पहाड़ी के नीचे वादी में,
धुंध से झाँक कर निकलती हुई,
रेल की पटरियां गुजरती थीं--!

धुंध में ऐसे लग रहे थे हम,
जैसे दो पौधे पास बैठे हों,.
हम बहुत देर तक वहाँ बैठे,
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे,
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक्त टलता रहा!

देर तक पटरियों पे बैठे हुये
ट्रेन का इंतज़ार करते रहे.
ट्रेन आई, ना उसका वक्त हुआ,
और तुम यों ही दो कदम चलकर,
धुंद पर पाँव रख के चल भी दिए

मैं अकेला हूँ धुंद में पंचम!!

तारपीन तेल में कुछ घोली हुयी धूप की डलियाँ,
मैंने कैनवस पर बिखेरी थीं,----मगर
क्या करूं लोगों को उस धुप में रंग दिखते नहीं!

मुझसे कहता था 'थियो' चर्च की सर्विस कर लूं--
और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूँ मैं
                         शबोरोज जहाँ--
रात को साया समझते हैं सभी, दिन को सराबों
                          का सफर!
उनको माद्दे की हकीकत तो नज़र आती नहीं,
मेरी तस्वीरों को कहते है तखय्युल हैं,
ये सब वाहमा हैं!

मेरे 'कैनवस' पे बने पेड़ की तफसील तो देखें,
मेर तखलीक खुदावंद के उस पेड़ से कुछ कम
तो नहीं है!

उसने तो बीज को इक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था, और नुमायाँ
                          भी हुआ!
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ,
उस मुसव्विर ने कहाँ दखल दिया थ,
जो हुआ सो हुआ------

मैंने हार शाख पे, पत्तों के रंग रूप पे मेहनत की है,
उस हकीकत को बयां करने में जो हुस्ने -हकीकत
                             है असल में

इन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो,
कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं,
इनको शे`रों की तरह मैंने किया है मौज़ूँ!
देखो तांबे की तरह कैसे दहकते है खिज़ां के पत्ते,

"कोयला कानों" में झोंके हुये मजदूरों की शक्लें,
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलती रहीं
आलुओं पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग,
                    "पोटेटो ईटर्ज़'
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बाधे लगते हैं सारे!

मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी,
अपने कैनवस पे उसे रोक लिया------
'रोलाँ' वह 'चिठ्ठी रसां',और वो स्कूल में
                     पढता लड़का,
'ज़र्द खातून', पड़ोसन थी मेरी,------
फानी लोगों को तगय्युर से बचा कर, उन्हें
      कैनवस पे तवारीख की उम्रें दी हैं--!
सालहा साल ये तस्वीरें बनायीं मैंने,
मेरे नक्काद मगर बोले नहीं--
उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कनों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुये इक कव्वे की वह
                      चीख पुकार------
कव्व खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ
                        बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!

मेरे 'पैलेट' पे रखी धूप तो अब सूख गयी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिये------
चंद बालिश्त का कैनवस भी मेरे पास नहीं है !