भक्त की अभिलाषा / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ,
तू है महासागर अगम मैं एक धारा क्षुद्र हूँ ।
तू है महानद तुल्य तो मैं एक बूँड समान हूँ,
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ ।।
तू है सुखद ऋतुराज तो मैं एक छोटा फूल हूँ,
तू है अगर दक्षिण पवन तो मैं कुसुम की धूल हूँ ।
तू है सरोवर अमल तो मैं एक उसका मीन हूँ,
तू है पिता तो पुत्र मैं तब अंक में आसीन हूँ ।।
तू अगर सर्वधार है तो एक मैं आधेय हूँ,
आश्रय मुझे है एक तेरा श्रेय या आश्रेय हूँ ।
तू है अगर सर्वेश तो मैं एक तेरा दास हूँ,
तुझको नहीं मैं भूलता हूँ, दूर हूँ या पास हूँ ।।
तू है पतित-पावन प्रकट तो मैं पतित मशहूर हूँ,
छल से तुझे यदि है घृणा तो मैं कपट से दूर हूँ ।
है भक्ति की यदि भूख तुझको तो मुझे तब भक्ति है,
अति प्रीति है तेरे पदों में, प्रेम है, आसक्ति है ।।
तू है दया का सिन्धु तो मैं भी दया का पात्र हूँ,
करुणेश तू है चाहता, मैं नाथ करुणामात्र हूँ ।
तू दीनबन्धु प्रसिद्ध है, मैं दीन से भी दीन हूँ,
तू नाथ ! नाथ अनाथ का, असहाय मैं प्रभु-हीन हूँ ।।
तब चरण अशरण-शरण है, मुझको शरण की चाह है,
तू शीत करता दग्ध को, मेरे हृदय में दाह है ।
तू है शरद-राका-शशी, मन चित्त चारु चकोर है,
तब ओट तजकर देखता यह और की कब ओर है ।।
हृदयेश ! अब तेरे लिए है हृदय व्याकुल हो रहा,
आ आ ! इधर आ ! शीघ्र आ ! यह शोर यह गुल हो रहा ।
यह चित्त-चातक है तृषित, कर शान्त करुणा-वारि से,
घनश्याम ! तेरी रट लगी आठों पहर है अब इसे ।।
तू जानता मन की दशा रखता न तुझसे बीच हूँ,
जो कुछ भी हूँ तेरा किया हूँ, उच्च हूँ या नीच हूँ ।
अपना मुझे, अपना समझ, तपना न अब मुझको पड़े,
तजकर तुझे यह दास जाकर द्वार पर किसके अड़े ।।
तू है दिवाकर तो कमल मैं, जलद तू, मैं मोर हूँ,
सब भावनाएँ छोड़कर अब कर रहा यह शोर हूँ ।
मुझमें समा जा इस तरह तन-प्राण का जो तौर है,
जिसमें न फिर कोई कहे, मैं और हूँ तू और है ।।