ओ मेरे दिल!-3 / अज्ञेय
धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!
तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल!
बीते युग में जब किसी दिवस प्रेयसि के आग्रह से बेबस,
उस आदिम आदम ने पागल, चख लिया ज्ञान का वर्जित फल,
अपमानित विधि हुंकार उठी, हो वज्रहस्त फुफकार उठी,
अनिवार्य शाप के अंकुश से धरती में एक पुकार उठी :
"तू मुक्त न होगा जीने से, भव का कड़वा रस पीने से-
तू अपना नरक बनावेगा अपने ही खून-पसीने से!"
तब तुझ में जो दु:सह स्पन्दन कर उठा एक व्याकुल क्रन्दन :
"हम नन्दन से निर्वासित हैं, ईश्वर-आश्रय से वंचित हैं;
पर मैं तो हूँ पर तुम तो हो-हम साथी हैं, फिर हो सो हो!
गौरव विधि का होगा क्योंकर मेरी-तेरी पूजा खो कर?"
उस स्पन्दन ही से मान-भरे, ओ उर मेरे अरमान-भरे,
ओ मानस मेरे मतवाले-ओ पौरुष के अभिमान-भरे!
तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल,
धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!