भाव रस अलंकार से हीन, अर्थ-गौरव से शून्य असार ।
नाम ही है वस जिनमें, पद्य ये हैं ऐसे दो-चार ।
बिल्व पत्रों का शुष्क समूह, कब किसी से आया है काम,
उन्हीं से होता जग को तोष तुम्हारा हो यदि उन पर नाम ।
लिख दिया है बस अपना नाम और क्या है लिखने की बात ?
नाम ही एकमात्र है सत्य और है नाथ ! वही पर्याप्त
पड़ेगी जब तक जग की दृष्टि, रहेंगे तब तक क्या ये स्पष्ट ?
किन्तु तुम तो मत जाना भूल, नाम का गौरव हो मत नष्ट ।
(‘प्रेमा’, दिसम्बर 1930 में प्रकाशित)