भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शुक्रतारा / मदन वात्स्यायन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:37, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन वात्स्यायन |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नए दूल्हे-सा सूरज नववधू सा पीछे-पीछे यह
शुक्रतारा जा रहा है

बदल रहा है रंग आसमां का क्षण-क्षण
बदल-बदल यह जगमगा रहा है
इंजन के हेडलाइट-सा शोरगुल के बीच
सूरज निकल गया
गार्ड की रोशनी-सा पीछे पीछे गुमसुम अब
शुक्रतारा जा रहा है ।

हमारी बस्ती में दिये से बल्ब से पैट्रोमैक्स-सा चाँद
चारों ओर बल उठे तारे
दूरी में बैलगाड़ी की लालटेन-सा यह
शुक्रतारा जा रहा है ।

शहर को अँधेरा कर हवाईजहाज़ से
मिनिस्टर चले गए
जनता से एम० एल० ए०-सा पीछे-पीछे यह
शुक्रतारा जा रहा है।

कि भटक न जाएँ राहगीरों की ख़ातिर
शाम को जला के मशाल अब शुक्रतारा जा रहा है ।

तपता सूर्य गया चिल्लाते राह दिखाते कौड़ियों से
सितारे दौड़ आ भरे
अपने सब कुछ की रमाने धूनी अब क्राँतिदृष्टा
शुक्रतारा जा रहा है ।

है नेहरू एक वतन का प्यारा सताए हुओं को है
जिस पर भरोसा ।
हमारा आँखों में अब भी चमक है कि बीच आसमाँ में
वह सितारा जगमगा रहा है ।

बीबी सजा दियों का थाल लाओ ज्योति भर लो ।
कि हमारे आसमान को सूना कर के रक्ष के देवता यह
शुक्रतारा जा रहा है ।