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अकेले के पल- 1 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मित्र !
       मेरी ऑखें
       प्रकृति के आँचल में खुलीं
       आँचल की थपकियों में
       मुझे ममत्व मिला
       फिर उसकी उँगलियों के सहारे
       प्रकृति की विराटता में
       मेरे कदम उठे
       एक दिन वे उॅगलियाँ अदृश्य हो गईं
       स्थूलता ने सूक्ष्मता का बाना पहना
       और तब मुझे लगा
       इस विराट की यात्रा में
       मैं अकेला हूँ,
       मेरे पल अकेले के हैं.

       मैने यह भी अनुभव किया
       कि मेरे पास
       मेरी निजता की नाव है
       जो अस्तित्व की डोर से बँधी
       उससे छिटकी एक इयत्ता है
       जिसकी पतवार भी मैं हूँ और पाल भी मैं हूँ
       और कितना आश्चर्य है
       कि यात्री भी मैं ही हूँ.

       विराट की करुणा और विराटता की तरफ