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जिनगीकेँ जीव कोना / शम्भुनाथ मिश्र

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अछि शरद ऋतुक सौन्दर्य अपन
नभमे चन्ना चमकय चमचम
ई सिङरहार फूलक सुगन्ध
वन-उपवनकेँ कयलक गमगम

वर्षाक पानिसँ अस्त-व्यस्त, संतुलित भेल सबतरि जल-थल
अछि मुदित चित्त सबहक सबतरि, विहुँसय सरमे विकसित शतदल

क्यौ नाचि रहल दय मधुरताल
क्यौ गाबि रहल सुमधुर सरगम

नहुँ नहुँ सिहकय अति सुखद पवन, मृदुशस्य शशि झुकि करय नमन
छथि प्रकृति पहिरने रहित वसन, जनजनक भेल प्रमुदित तनमन

सरिता जल निर्मल भरल-पुरल,
शीतल बसात लागय अनुपम

सब पितृकर्मसँ भय निवृत्त, सब देवकर्म दिस भय प्रवृत्त
पूजोपकरण छथि जुटा रहल, मिलिजुलि काली दुर्गा मैया निमित्त

शरदे ऋतुमे रावणक पतन
कयलनि मर्यादा पुरुषोतम

ई शरद कयल भूतल शीतल, खंजन आगमनक थिक ई पल
लतरल ओ चतरल लता गुल्म, नव जीवन पौलक जीव सकल

विहुँसैत कुमुदिनी कुमुदक छवि
पोखरिकेँ बनबय सुन्दरतम
अछि शरद ऋतुक सौन्दर्य अपन
नभमे चन्ना चमकय चमचम