भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंगलाचरण - 5 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:05, 30 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पान सन्मान सों करैं बिनोद बिन्दु हरैं,
तृपा निज तऊ लागी चाह जिय जाकी है।
जाचैं चारु चातक चतुर नित जाहि देति,
जौन खल नरनि जरनि जवासा की है॥
प्रेमघन प्रेमी हिय पुहमी हरित कारी,
ताप रुचिहारी कलुषित कविता की है।
सुखदाई रसिक सिखीन एक रस से,
सरस बरसनि या पियूष वर्षा की है॥