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मंगलाचरण - 5 / प्रेमघन

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पान सन्मान सों करैं बिनोद बिन्दु हरैं,
तृपा निज तऊ लागी चाह जिय जाकी है।
जाचैं चारु चातक चतुर नित जाहि देति,
जौन खल नरनि जरनि जवासा की है॥
प्रेमघन प्रेमी हिय पुहमी हरित कारी,
ताप रुचिहारी कलुषित कविता की है।
सुखदाई रसिक सिखीन एक रस से,
सरस बरसनि या पियूष वर्षा की है॥