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पावस - 14 / प्रेमघन
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बिरह बढ़ावन या सावन की रजनी मैं,
जीगन के गन को अकास में प्रकास है।
चंचला चपल चमकत चहुँ ओर चख,
चितवन हूँ को न मिलत अवकास है॥
प्रेमघन घन की घटा है घोर घहरात,
घरता बूँदैं उपजाय उर त्रास है।
पी कहाँ पपीहा साँची कहन भटू है अब,
परदेसी पिय की न आवन की आस है॥