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ढ़हते दरख्त / रति सक्सेना

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दरख्तों को ढ़हना पसन्द नहीं
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर जमीन, भरपूर आसमान
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
जब कभी जमीन करवट लेती है
आसमान आखिरी बूँद तक पिघल जाता है
आसपास बैगाना बन जाता है
दरख्तों को ढ़हना पडता है
ढ़हने से पहले वे
वे पखेरुओं को आशीष देते हैं
लताओँ से विदा कहते हैं
पत्तियों को झड जाने देतें हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
हौले से सहला देते हैं
मौन धमाके से
वर्तमान को थर्राते हुए
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
ढ़ह जाते हैं भविष्य में