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सतरमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो

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चप्पा-चप्पा रक्तपान सें हरियैलॅ छै घास,
कुरूक्षेत्र-छाती पर लिखलॅ अनगिनती इतिहास।
लेकिन आय पहाड़ उमड़लॅ छै योद्धा के जे रं,
कहियो ने देखलकै वें ने पुराकाल में है रं।

लागै छ सौंसे धरती के चुनलॅ-चुनलें वीर,
दोनों तरफें सें जुटलै, लै अस्त्र-शस्त्र धनु-तीर,
हाथी-घोड़ा के टापॅ सें पोर-पोर दलकै छै,
रथ के घर्धर शोरॅ में वीरॅ के मन ललकै छै।

धूल-धुआँरॅ चितकबरॅ लागै सौंसे आकाश,
बे मौसम के बनै बबंडर च चल बाव-बतास,
प्रकृति महा विपरीत भयानक थर-थर-थर कांपै छै,
धूसर-खेरा शिला खण्ड ने सूरज केॅ चाँपै छै।

दू टुकड़ा में बँटलै रवि फेंके लहुवॅ के धार,
रूण्ड-मुण्ड लागै छ उड़त, उड़तें कान-कपार,
सात महाग्रह उदित साथ छै धरती केॅ बेर्हो केॅ,
मघा नछत्तर पर सवार चन्द्रमा, काल हेरी केॅ।

गोधॅ के जेरॅ मँड़राबै, बोलै काक-सियार,
असगुनियाँ छै समाँ डरौनें लागै छै संसार,
टकराबै छै कखनू -कखनू लोथ कंक-पाँखॅ सें,
चिनगारी फूटै छै कखनू जड़-अचेत आँखॅ सें।

कौरव-दल छै पच्छिम दिश बान्ही चतुरंगी व्यूह
पूवें पाण्डव के खाढॅ़ कुछ छोटॅ सैन्य-समूह
प्रलय काल में दू समुद्र ने मर्यादा तोड़ी केॅ
मानॅ ऐलै एक-दोसरा दिश रुख केॅ मोड़ी केॅ।

सबसें आगू भीष्म पितामह सदका रंथ-सवार,
उजरॅ घोड़ा उजरॅ पहिरन दाढ़ी सब संभार,
रक्त कमल-आसन पर दगदग सूरज रं छहरै छै,
आसमान में स्वच्छ पताका ताड़-चिन्ह फहरै छै।

पीठी पर लक-लक चमकै छै अक्षय वाण-तुनोर
ढीला डोरी महाधनुष धरने कान्हा पर भीर,
गदा शक्ति आरो कत्तेॅ नोअस्त्र-शस्त्र छै भरलॅ,
अगल-बगल चांदी -होदा में सहज सँवरलॅ धरलॅ।

तनलॅ शिरा-शिरा ओजस्वो चक्-चक् आयत आँख;
भौं-पिपनी लागै छै उजरॅ-उजरॅ सोपी-पाँख,
चौड़ा खुला पहाड़ वक्ष पर धवल जनी के घेरा,
भागीरथी लगावै मानॅ कैलाशॅ के फेरा।

दहिने-बामें द्रोण-कृपा छै आरी वीर-समूह,
पीछू अक्षौहिनि सेना बान्हो केॅ दुर्गम व्यूह,
कुरूक्षेत्र के महासमर में कौरव के सेनानी,
देवराज के, परशुराम के, त्रिपुरारी के शानी।

सहसा मचलै खौल युधिष्ठिर के पैदल प्रस्थान,
कौरव-दल के सेनादिश तेजी केॅ मान-गुमान,
खोली कवच रंथ पर राखी अस्त्र-शस्त्र छोड़ा केॅ,
शिरस्त्रान बिन, मानॅ युद्धॅ सें नाता तोड़ी केॅ।

भीम लपकलै पीछू सें मन में अनिष्ट के भान,
यै हालत में दुर्योधन ने कर सकॅे अपमान।
पार्थ, नकुल, सहदेव, कृष्ण रथ सें उतरी केॅ गेलै;
काना-फूसी- ”जेठ पाण्डु के मन में है की भेल?“

”डरलै कौरव के सेना सें करतै आत्म समर्पण;
पाण्डव-दल में शायद छै वीरॅ के भारो धरखन।“
यह एक अनुमान थिराबै कुरु-सेना के मन में,
एक-दोसरा दिश ताकी केॅ फबती कसै कथन में।

”कोन भूल पर भेयाँ छोड़ो हमरा सब के साथ
खींची लेलकै समर भूमि में आबी रन सें हाथ?“
नकुलॅ के ई प्रश्न उतरलै कृष्णॅ के कनॅ में,
‘शास्त्र बराबर सजग रहै छै भैया के प्राणॅ में।

जे बोलै छॅ ई संभव नै गलती छौं अनुमान,
करेॅ सकेॅ ने धर्मराज ने कायरता के काम।“
-कृष्णें ने संकेत करलकै ”दम साधी केॅ देव,
अवगत होना छौं मरमॅ सॅ आगू सें नै लेवॅ

वृद्ध पितामह के आगू में विधिवत करी प्रणाम,
कर जोड़ी केॅ खाड़ँ होलै धर्मशास्त्र के मान,
-दुपहरिया सूरज के आगू में टुकड़ा मेहॅ के,
सकल्पित पौरुष के आगू में धारा नेहॅ के।

”जनपद गाँब-गाँव सूनॅ छै युवा-छबारिक होन,
अनुभव पर आतंक बिथरलॅ मुखड़ा निपट मलीन।
पिपरॅ पत्ता रं धरती पर काँपै छै मानवता,
दावानल देखी जेना पंछी के करुणा-म ता।

ई सब जानै छेलियै तय्यो युद्धॅ केॅ टारै में,
असफल सदा रहलियै दुर्योधन केॅ पुचकारै में।
थमेॅ सके छेॅ युद्ध तनी भी रहलै कहाँ उपाय?
समर भूमि में गुरुजन आगूँ आबै लेॅ निरुपाय।

मन में नै छेॅ डॅर समैनॅ नै कोनो अभिमान,
भय छै केवल हुअॅे कहीं नै गुरुजन के अपमान।
आज्ञा चाहै छीं युद्धॅ के आशीर्वाद विजय के,
अर्थ हुअेॅ स्वीकार पितामह साश्वत शील-विनय के।“

”बड़ी खुशी छेॅ देखी केॅ तोरॅ ई शिष्टाचार,
हर उन्नति कामी योद्धा के यहेॅ धर्म-आचार।
अपना सें विशिष्ट गुरुजन सें, पैहने युद्ध करै सें,
आज्ञा लै सें बॅल बढ़े छै साबिक शील वरै सें।“

”आज्ञा छै, तों समरभूमि में युद्ध करॅ मन थीर,
जीतै छै रन जतन करो केॅ जे टिकलॅ छै वीर।
निजी पात्रता के बूता पर व्यक्ति सुजस अर्जे छै;
कोय दोसरें मर्त्त लोक में नै केकरहौ कुछ दै छै।”

प्रबल नेह सें नीति, निभाना छै जन-जन के धर्म,
बनी खड़ा छीं बचनबद्ध जानै छॅ सबटा मर्म।
कौरव-दल के सेनापति लै मंशा कौरब-जय के,
हमरा लेॅ संभव नै देना आशीर्वाद विजय के।

जबेॅ-जबेॅ कोनों जिज्ञासा उठथौं तोरा मन में,
भय-उलझन के घड़ो उपस्थित होथौं दुर्गम रण में,
गूढ़ मर्म के बात कहै में करबै नै संकोच
झलें मृत्यु के वरण हुअेॅ नै हमरा कुछ अफसोच।“

आज्ञा पाबी युद्धॅ के जानी सब सार-निचोड़,
धर्मराज ने जाय छुवलकै द्रोण-कृपा के गोड़।
”आज्ञा चाहै छीं युद्धॅ के आशीर्वाद विजय के;
अर्घ हुअेॅ स्वीकार गुरुद्वय शाश्वत शील-विनय के।

हमरा सब छीं खुश देखी केॅ तोरॅ ई आचार,
अन्नॅ सें बन्हलॅ छीं जे छै जिनगी के आधार।
लेकिन धरती के विकास में सत्य-धरम के महिमाँ;
काल-काल सें जोगी रहलें छै सृष्टी के गरिमा।

वर्त्तमान में तन लेकिन मन में भविष्य के ध्यान,
विजयी बनॅ युद्ध में जे सें हुअेॅ लोक-कल्याण।“
आशीर्वाद विजय के पाबी दोनों गुरु के मुख सें,
लौटी चललॅ सैन्य-वाहिनी दिश पाण्डव-दल सुखसें।

दूर चली कुछ ठमकी उल्टी दोनों भुजा उठाय,
धर्मराज ने जोरॅ सें कौरव-दल दीश हँकाय,
बात कहलकै-‘जें चाहै छै पाण्डव दिश आबैलेॅ;
युद्धॅ सें पैहने हमरा सब तत्पर अपनावें लेॅ।“

नाँव युयुत्सु, गठीला सुन्दर दुर्योधन के भाय,
कौरव-सेना तेजी पैदल धर्मराज लग जाय;
विनय करकै-‘शामिल हम्में होबॅ पाण्डव दल में;
पुरतै कंछा पाबी खुद केॅ न्याय-नीति के बल में।“

जेठ पाण्डु ने नेहॅ में पकड़ी अनुजॅ के हाथ,
सौंपी देलकै भीमॅ केॅ, खुद चललै अर्जुन-साथ।
”अत अपार कौरव के सेना बीहॅ में बटलॅ छै;
पाण्डव के सेना लागै छै-कनखूरॅ सटलॅ छै।

समझॅ में नै आबै हमरा लगतै केना पार?
केना कटतै महा समुन्दर के दुर्गम विस्तार?“
-मन के शंका धर्मराज ने राखी देलकै खोली;
चुप भै गेल अर्जुन दिश हेरी एत्ते-टा बोली।

”एक सिंह ने हाथी के झुण्डॅ पर पाबै जीत,
एक लकड़बग्घां भेंड़ा के जेरॅ करै सभीत।
संख्या में नें विजय, समर्पित सेना ने जीत छै;
तनिके चिनगारी पूरा बस्ती पर ही बीतै छै।

महाराज! यै युद्ध भूमि में शंका के नै थान,
यहाँ आत्मबल, यहाँ युद्ध-कौशल के ही छै मान।
यही समय लेॅ वृहस्पती ने ‘बज्रव्यूह’ कहने छै;
अरि के दुर्गम दुर्ग हुनी जे-सें हरदम ढहने छै।

वही व्यूह के रचना करबै, आगू रहतै भीम,
रक्षित रहतै पाण्डव सेना, हुनकॅ शक्ति असीम।
फूँकी दीयै युद्ध - शंख मुख चिन्ता सें मोड़ी केॅ;
सभे फलाफल वासुदेव के ऊपर में छोड़ी केॅ।“

वीरोचित संबोध पार्थ के, समयोचित सब बात,
धर्मराज सजलै रंथॅ पर तून-कवच के साथ।
सजग सभे सेना, अपना-अपनी जगह पर भेलै;
चिन्ता कहीं अन्हार खोह में कुरुक्षेत्र सें गेलै।