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विरह / लीलानन्द कोटनाला
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आयो चैतर मास, सुणा दौं मेरी ले सास
वण-वणूडें<ref>वनस्पतियाँ</ref> सबी मौली<ref>हरी भरी हो गयीं</ref> गैन, चीटें<ref>पहाड़ी</ref> मौली गैन घास
स्वामी मेरो परदेस गै तो, द्वी तीन होई गैन मास
अज्यूं<ref>अभी</ref> तई<ref>तक</ref> कुछ सुणी<ref>कुछ पता लगना</ref> नि-मणी, ज्यूं<ref>प्राण</ref> को ह्वेगे उत्पास<ref>उदास</ref>
जौंका स्वामी घरू छन, तौंको होयुं छ विलास
रंग-विरंगे चादरे ओढ़ी-ओढ़ी, अड़ोस-पड़ौस सुहास।