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बनलता सेन (कविता) / जीवनानंद दास

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बीते कितने कल्प समूची पृथ्वी मैंने चलकर छानी,
वहाँ मलय सागर तक सिंहल के समुद्र से, रात रात
भर अन्धकार में मैं भटका हूँ, था अशोक औ’ बिम्बसार के
धूसर लगते संसारों में — दूर समय में, और दूर था
अन्धकार में, मैं विदर्भ में । थका हुआ हूँ —
चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन ;
शान्ति किसी ने दी तो वह थी :
नॉटर की बनलता सेन !
उसके घने केश — विदिशा पर घिरी रात के अन्धकार से,
मुख श्रावस्ती का शिल्पित हो, दूर समुद्री आँधी में
पतवार गई हो टूट ; दिशाएँ खो दी हों नाविक ने
अपनी, फिर वह देखे हरी पत्तियों वाला कोई द्वीप अचानक —
उसी तरह देखा था उसको अन्धकार में ; पूछा उसने :
’कहाँ रहे बोलो इतने दिन ?’ चिड़ियों के घोंसले सरीखी
आँखों से देखती हुई बस — नॉटर की बनलता सेन
सन्ध्या आती, ओस बून्द-सी दिन के चुक जाने पर धीरे,
चील पोंछ लेती डैनों से गन्ध धूप की, बुझ जाते रंग
थम जाती सारी आवाज़ें ; चमक जुगनुओं की रह जाती
और पाण्डुलिपि कोरी, जिसमें कथा बुनेगी रात उतरती
सब चिड़ियाँ — सब नदियाँ — अपने घर को जातीं
चुक जाता है जीवन का सब लेन-देन ।
रह जाता केवल अन्धकार — सामने वही बनलता सेन !