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मंत्र 1-5 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति

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ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृति से, त्यक्तेन प्रवृति हो
यह धन किसी का भी नही अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]

कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]

अज्ञान तम आवृत विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जनम लेते, निम्न हैं।
पुनरपि जनम मरणं के दुखः से दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुखः, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]

है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गातिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गातिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]

चलते भी हैं प्रभु नहीं भी प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]