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शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
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मैं अरुण अभियान के अंतिम चरण में हूँ!
शब्द के कल्पान्त-व्यापी संचरण में हूँ!
सूर्य की शिखरांत यात्रा पर चला हूँ मैं,
एक रक्षा-चक्र में नख-शिख ढला हूँ मैं,
मैं त्रिलोचन-स्वप्नवाही जागरण में हूँ!
शशि-वलय तोड़ा प्रखर गति की चपलता ने,
तृप्ति-रंजित सोम-रस डूबी तरलता ने,
मैं प्रणय से, प्रणव के हस्तान्तरण में हूँ!
राग-रंजित मन धुला आकाश-गंगा में,
घुल गया हिमखण्ड-सा संत्रास गंगा में,
मैं महासंक्रांति-क्षण के सन्तरण में हूँ!
काल की आद्यन्त गाथा, शून्य गाता है,
प्राण-परिचित नाद मुरली-सी बजाता है,
मैं अनादि-अनन्त लय के व्याकरण में हूँ!
गीत मेरे गूँजते-मिलते ध्रुवान्तों में,
मैं मुखर हूँ, ज्वालमण्डित समासांतों में,
मैं समूची सृष्टि के रूपान्तरण में हूँ!