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अङ्ग अङ्गमा / सुमन पोखरेल

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अङ्ग अङ्गमा चल्यो तरङ्ग
ऐना हेर्दा भएँ झसङ्ग

हरेक अङ्ग देख्छु नौलो
ममा कहिले यो वय आयो
छैन आफ्नै मन आफू सँग
ऐना हेर्दा भएँ झसङ्ग

गालामा कस्तो लाली चढेछ
अधर पनि अर्कै भएछ
फेरिई सकेछ मेरो रङ्ग
ऐना हेर्दा भएँ झसङ्ग