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मेरे मन की वंशी पर, अंगुलियाँ मत फेरो / कृष्ण मुरारी पहारिया

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मेरे मन की वंशी पर, अंगुलियाँ मत फेरो
कहीं न सोई पीड़ा जग जाए

अब मुझको दायित्व निभाने दो
अपने जैसों का दुख गाने दो
जिस पर विज्ञापन का पर्दा है
उसको आज खुले में लाने दो

मेरी ओर न ऐसे खोये नयनों से हेरो
कहीं न कोई सपना ठग जाए

कैसे समझाऊँ अपना अभियान
मैंने तो ली है गाने की ठान
एक बूँद अमृत से क्या होगा
जीवन भर तो करना है विषपान

मुझे बाहुओं के रसमय वृत्तों से मत घेरो
कहीं सृजन को राहु न लग जाए