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चरखण्डीको खोंच / युद्धप्रसाद मिश्र

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लहलह पल्लव हरित लताको,
छाया स्वर्गिक शीतल रुखको,
कुञ्ज छ मन्दिर चिडियाहरुको,
कलकल गान छ निर्मल जलको ।

गिरिको गहिरो-अन्तर-तट छ,
जल यो छलबल छलबल चलछ,
यो छलबलमा रुखको हरियो,
छाया तिरिमिरि तिरिमिरि छरियो ।

निर्मल जलको पतला सारी
टलपल टलपल सर्र लतारी,
कोमल झ्याउ, पत्थर हरिला,
सज्जित जलको चोली हीला ।

कहिले वारी, कहिले पारी,
फर फर उड्दै पंख फिंजारी,
बनन विहङ्गम बारमबार,
निर्मल जलको रंगिन हार ।

चरखण्डी यो सुन्दर छाडी,
झटपट झटपट व्यर्थ अगाडी,
काइ परेका चिपला पत्थर,
बाट झर्यौ किन झरझर झरझर ?
(‘शारदा‘ बाट)
('पद्य-संग्रह' बाट)