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बेसुध है आदमी / नीरजा हेमेन्द्र
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आँधी बयार में, बेसुध है आदमी,
तूफानी मझधार में, बेसुध है आदमी।
घर और मकां तो, बाढ़ में ढह गये सभी,
जनवरों की घार में, बेसुध है आदमी।
बिटिया है व्याहन को, माई बीमार है,
महाजन की फटकार में, बेसुध है आदमी।
रूपये और रिश्ते, हो गये हैं यक-सां,
पानी के तार-तार में, बेसुध है आदमी।
अब की इस बाढ़ में, डूबी मड़इया भी,
दिन कटेंगे खर-पतवार में, बेसुध है आदमी।
मृग मरीचिका में गुम गये हैं,बेटी और बेटवा,
दिन के अंधकार में, बेसुध है आदमी।
टूटती कमर है, होठों पे हाय-हाय है,
महंगाई की मार में, बेसुध है आदमी।
आप और हम, एक पथ के पथिक हैं,
अपनी सरकार में, बेसुध है आदमी।