भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ह्यांवत मा ना जुरिहै अबकी / बोली बानी / जगदीश पीयूष

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:05, 24 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKRachna |रचनाकार=भारतेन्दु मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=बोली...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ह्यांवत मा ना जुरिहै अबकी
पइरउ क्यार बिछउना
बिटिया के घर जनमु लिहिसि है
सूखा मा लरिकउना

पारसाल की बाढ़ ते अब लौं
उबरि न पायेन हम
कोठरी की भसकी देवाल का
जोरि न पायेन हम

फीस न भरि पायेन इहिते
घर बैठ रहा छोटकउना

लिखी बदी सब आय कहति हैं
कहे करे ना होय
ई दुरदिन मा देखि लीन हम
हितू न आपन कोय

सिर्फ लोनु रोटी है अब तौ
भूलि गवा मिठलउना

राहत का सरकारी पइसा
डकरि गये परधान
हम जइसेन के घर ना गोंहूँ
ना मूठी भर धान

दउरि रहा नेता लीन्हे अब
कागद क्यार घोड़उना