भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलकर तुमसे / यश मालवीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूल सा हल्का हुआ मन
बोलकर तुमसे
आँख भर बरसा घिरा घन
बोलकर तुमसे

स्वप्न पीले पड़ गये थे
तुम गये जब से
बहुत आजिज़ आ गये थे
रोज़ के ढब से
मौन फिर बुनता हरापन
बोलकर तुमसे

तुम नहीं थे, ख़ुशी थी
जैसे कहीं खोई
तुम मिले तो ज्यों मिला
खोया सिरा कोई
पा गये जैसे गड़ा धन
बोलकर तुमसे