भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे भीतर का राक्षस / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:21, 22 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दा है मरा नहीं
मेरे भीतर का राक्षस !
मेरी देह में जैसे किसी जहाज़ के अन्दर
अपने अन्दर जैसे किसी जेल में ।

दुनिया बस सिलसिला है दीवारों का ।
बाहर निकलने का रास्‍ता-सिर्फ़ एक खंजर
(दुनिया एक मंच है
तुतलाया है अभिनेता)

छल-कपट नहीं किया कोई
लँगड़े विदूषक ने ।
जैसे ख्‍याति में,
जैसे चोगे में
वह रहता है अपनी देह में ।

वर्षों बाद !
ज़िन्दा हो -- ख़याल रखो !
(केवल कवि
बोलते हैं झूठ, जैसे जुए में !)

ओ गीतकार बन्धुओ,
हमारी क़िस्‍मत में नहीं है टहलना
पिता के चोगे की तरह
इस देह में ।

हम पात्र है इससे कहीं अधिक श्रेष्‍ठ के
मुरझा जाएँगे इस गरमी में ।
खूँटे की तरह गड़ी हुई इस देह में
और अपने भीतर जैसे बॉयलर में ।
ज़रूरत नहीं बचाकर रखने की
ये नश्‍वर महानताएँ
देह में जैसे दलदल में !
देह में जैसे तहखाने में ।

मुरझा गए हम
अपनी ही देह में निष्‍कासित,
देह में जैसे किसी षड्यन्त्र में
लोहे के मुखौटे के शिकंजे में ।