कविता इन्तज़ार कर रही है
हमारी वाटर-बोतल में
बावड़ी के मीठे, ताज़े, साफ़ पानी-सा
वक़्त है। जिसे
हम उस पहाड़ से मांग कर लाए हैं
जो
हमारी
इकलौती तट-शोभा है।
हम
वाटर-बोतल से एक घूँट भरते हैं
और
अपने-अपने जिस्मों को
एक-दूसरे की आँखों से देखते हैं।
फुसफुसाते हैं-- 'कविता
इन्तज़ार कर सकती है।'
रात दोपहर में विलय हो रही है
ज़िस्म
हमारे भीतर
सुबह की लाली हो रहे हैं।
हम
तेज़-तेज़ चलने लगते हैं
उस ओर
जिस ओर
कविता हमारा इंतज़ार कर रही है।
रचनाकाल : 20 मई 1975