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घबराहट / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह
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नाचती हुई ये छायाएँ हम हैं क्या ?
या छायाएँ हमारी हैं ?
राख हो चुका है पूरी तरह
सपनों, धोखों और प्रेतछायाओं से भरा दिन।
क्या है जो आकर्षित कर रहा है हमें
समझ नहीं पाऊँगा यह,
क्या हो रहा है यह मेरे साथ
समझ नहीं पाओगे तुम
धुँधला कर रहा है मुखौटे के पीछे किसकी नजरों को
बर्फीले अंधड़ का यह धुँधलका?
सोए या जागे होने पर
यह तुम्हारी आँखें चमकती हैं क्या मेरे लिए?
दिन-दोपहर में भी क्यों
बिखरने लगते हैं रात्रि-केश?
तुम्हारी अपरिहार्यता ने ही क्या
विचलित नहीं किया है मुझे अपने पथ से?
क्या ये मेरा प्रेम और आवेग हैं
खो जाना चाहते हैं जो अंधड़ में?
ओ मुखौटे, सुनने दे मुझे
अपना अंधकारमय हृदय,
ओ मुखौटे, लौटा दे मुझे
मेरा हृदय, मेरे उजले दुख!