Last modified on 2 मार्च 2008, at 21:34

ऊहापोह / जयप्रकाश मानस

Anil Janvijay (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:34, 2 मार्च 2008 का अवतरण

उफनती नदी की शक्ल में

मसकता है लावा

और समतल पहाड़ियाँ उग आती हैं

गूँजता है बीहड़ों से

आदिम राग

गफा और भी ख़ूँखार हो उठता है

पौधे उतार फेंकना चाहते हैं हरीतिमा

राहु को घोषित कर देता है चैम्पियन

बुझता हुआ चन्द्रमा

लकड़हारा बन जाता है कालिदास

खाई कहाँ नज़र आती है खाई

आकाश जा बैठता है रसातल की जगह

उलटी दिशा में ज़ोरदार घूमने गलती है पृथ्वी

तेज़-तेज़ दौड़ने के बावजूद

रहते हैं वहीं के वहीं

बैठे-बैठे औंधे मुँह हो जाते हैं

जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से

विवेक गम हो जाता है

जैसे अनाड़ी के हाथ से

गिर गया हो कोई सिक्का अथाह नीलिमा में


ऐसे वक़्त

सब कुछ होने के बावजूद कुछ नहीं होता

कुछ नहीं होने के बाद भी हो जाता है बहुत कुछ

ऊहापोह से बढ़कर ख़तरा

और क्या हो सकता है