Last modified on 11 सितम्बर 2007, at 09:31

सिरेहीन रेखाएँ / दिविक रमेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:31, 11 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश |संग्रह=रास्ते के बीच }} बिन्दु को फैलाकर उभ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बिन्दु को फैलाकर उभरा

यह जो धब्बा

बेपहचना रूप

भीतर की असमर्थता,

व्याकुलता

बाहर साधनहीन अधूरी व्यक्तता

मुसे क़ागज़ से खिंचे सिरों का हिलना

इंगित से अपरिचित--हवा के उपेक्षित

दिशा का ज्ञान नहीं है ।


थोप दिया क्या मुझ पर, जो

सब कुछ है

बस नाम नहीं है ।


कोई मृत परिभाषा ही दे देते ।