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इन्तसाब / ब्रजेन्द्र 'सागर'

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इन्तसाब<ref>समर्पण</ref>

उन सबको
जो माज़ी<ref>भूतकाल</ref>में जी रहे
हाज़िर<ref>वर्तमान<ref>को
फ़र्दा<ref>भविष्य<ref>की
सौगात हैं
और
तुमको' भी

शब्दार्थ
<references/>