भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पपीहा बोलि जारे / पढ़ीस
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:50, 19 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पढ़ीस }} <poem> पपीहा बोलि जा रे! पपीहा डोलि जा रे! बा...)
पपीहा बोलि जा रे!
पपीहा डोलि जा रे!
बादर बइरी रूप बनावयिं
मारयिं बूँदन बानु।
तिहिं पर तुइ पिउ-पिउ ग्वहरावइ
हाँकन हूकु न, मानु।
पपीहा बोलि जा रे!
पपीहा डोलि जा रे!
हाली डोलि जा रे
तपि-तपि रहिउँ तपंता साथी
लूकन लूक न लागि।
जागि रहे उयि कहूँ कँधैया
दागि बिरह की आगि।
पपीहा बोलि जा रे!
पपीहा डोलि जा रे!
छिनु-छिनु पर छवि हायि न भूलयि
हूलयि हिया हमार।
साजन आवयिं तब तुइ आये
आजु बोलु उयि पार।
पपीहा बोलि जा रे!
पपीहा डोलि जा रे!