भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह राक्षसी उजाला / बाबू महेश नारायण
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:04, 20 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाबू महेश नारायण }} {{KKCatKavita}} <poem> :::वह राक्षसी उजाला, ...)
वह राक्षसी उजाला,
बहके हुए मनुष्य को करती है जो तबाह
मैदान पुर खतर में
वाँ भी चमक भुलावनी अपनी दिखाती थी।
ज़िन्दगी में बहुत ऐसी ही चमकती हुई चीज़
जीव अनमोल को करती है हक़ीर बो नाचीज़।
जुगनूं थे चमकते डालों पर,
जस मोती काले बालों पर,
जस चन्दन बिन्दु दीख पड़ें
श्यामा अबला के गालों पर।
भौतिक सी कीर्ति
आती थी नज़र
व्यापार अचम्भा
देखो तो बराबर।
अजायब!
अपार!!