Last modified on 5 फ़रवरी 2008, at 14:12

वसन्त की रात-1 / अनिल जनविजय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:12, 5 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल जनविजय |संग्रह= }} खिड़की के पास खड़ी होकर वो चांद ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खिड़की के पास खड़ी होकर

वो चांद पकड़ना चाहे

फैली थी वितान में ऊपर

उसकी दो पतली बाहें


चमक रहा था उसका चेहरा

थी वसन्त की रात

चेहरे पर बरस रहा था उसके

चन्द्रकिरणों का प्रपात