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सपने जगाती आ! / महादेवी वर्मा

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श्याम अंचल,

स्नेह-उर्म्मिल,

तारकों से चित्र-उज्ज्वल,

घिर घटा-सी चाप से पुलकें उठाती आ!

हर पल खिलाती आ!

सजल लोचन,

तरल चितवन,

सरल भ्रू पर विरल श्रम-कण,

तृषित भू को क्षीर-फेनिल स्मित पिलाती आ!

कण-तृण जिलाती आ!

शूल सहते,

फूल रहते;

मौन में निज हार कहते,

अश्रु-अक्षर में पता जय का बताती आ!

हँसना सिखाती आ!

विकल नभ उर,

घूलि-जर्जर

कर गये हैं दिवस के शर,

स्निग्ध छाया से सभी छाले धुलाती आ!

क्रन्दन सुलाती आ!

लय लुटी है,

गति मिटी है,

हाट किरणों की बटी है,

धीर पग से अमर क्रम-गाथा सुनाती आ!

भूलें भुलाती आ!

व्योम में खग,

पंथ में पग,

उलझनों में खो चला जग,

लघु निलय में नींद के सबको मिलाती आ!

दूरी मिटाती आ!

कर व्यथायें,

सुख-कथायें,

तोड़ सीमा की प्रथायें,

प्रात के अभिषेक को हर दृग सजाती आ!

उर-उर बसाती आ!

सपने जगाती आ!