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पंकज-कली! / महादेवी वर्मा
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क्या तिमिर कह जाता करुण?
क्या मधुर दे जाती किरण?
किस प्रेममय दुख से हृदय में
अश्रु में मिश्री घुली?
किस मलय-सुरभित अंक रह-
आया विदेशी गन्धवह?
उन्मुक्त उर अस्तित्व खो
क्यों तू भुजभर मिली?
रवि से झुलसते मौन दृग,
जल में सिहरते मृदुल पग;
किस व्रतव्रती तू तापसी
जाती न सुख दुख से छली?
मधु से भरा विधुपात्र है,
मद से उनींदी रात है,
किस विरह में अवनतमुखी
लगती न उजियाली भली?
यह देख ज्वाला में पुलक,
नभ के नयन उठते छलक!
तू अमर होने नभधरा के
वेदना-पय से पली!
पंकज-कली! पंकज-कली!