भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जम और जमाई / काका हाथरसी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद

सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद

कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ

मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ

कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली

भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली


लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज

लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज

तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते

रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते

‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू

चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू


जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट

जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट

तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी

भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी

कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का

तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका


कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श

तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?

अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली

नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली

कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता

मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता


और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल

आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल

इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा

छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा

‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई

फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई