Last modified on 20 दिसम्बर 2009, at 19:55

एक दिन / शलभ श्रीराम सिंह

एक दिन
पृथ्वी पर जन्मे
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊंगा मैं,

मिट जाएंगी मेरी स्मृतियाँ
मेरे नाम के शब्द भी हो जाएंगे
एक दूसरे से अलग
कोश में अपनी-अपनी जगह पहुँचने की
जल्दबाजी में
अपने अर्थ समेट लेंगे वे

शलभ कहीं होगा
कहीं होगा श्रीराम
और सिंह कहीं और

लघुता-मर्यादा और हिंस्र पशुता का
समन्वय समाप्त हो जाएगा एक दिन
एक दिन
असंख्य लोगों की तरह
मिट जाऊँगा मैं भी।

फिर भी रहूंगा मैं
राख में दबे अंगारे की तरह
कहीं न कहीं अदृश्य, अनाम,अपरिचित
रहूंगा फिर भी-फिर भी मैं