भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हें खोकर मैंने जाना / कुंवर नारायण
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:19, 7 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंवर नारायण |संग्रह=वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण ...)
तुम्हें खोकर मैंने जाना
हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए
क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी ?
जबकि उसका एक कोना बहुत है
देह-बराबर जीवन जीने के लिए
और पूरा आकाश खाली पड़ा है
एक छोटे-से अहं से भरने के लिए ?
दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर
जबकि सब कुछ जीता-
हारा जा चुका है
जीवन की अंतिम सरहदों पर ?