भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:06, 29 अप्रैल 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: नज़ीर अकबराबादी

~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।

निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।

चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।

हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।

मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।

क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।


दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है ।

आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।

पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।

याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।

कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।


मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।

ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।

उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।

जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।।

माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।


कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।

गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।।

बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।

गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।

कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।

क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।


जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।

हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।

जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।

परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।

भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।


ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।

यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।

और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।

अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।

जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।