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सपना तुम्हारी आंखों का / रवीन्द्र दास
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सपना तुम्हारी आंखों का मैं बन पाता !
हर बार कभी आंधी आई
मैं तेरे ख्वाबों में छुपकर बच पाता हूँ,
अचरज न करो , है सच्चाई
अख़बार नहीं पढ़ पाता हूँ
बकबास करे हैं सबके-सब
कोई ख़बर न तेरी छपवाता !
कोई चश्मा ऐसा होता
जिससे मन तेरा पढ़ लेता
दुनिया की उलझन भूल कभी
तेरे मन में ख़ुद खो जाता
मैं बिकता हूँ हर बार, मगर
हर बार ही वापस पा जाता !
क्या कोई जगह बताएगा -
जिस जगह मौत का खौफ न हो !
मैं आशावादी शायर हूँ
कुछ जो भी कहो , पर 'न' न कहो
मैं निर्भय हूँ, ताक़तवर हूँ
इस ख्वाहिश से घबरा जाता
सपना तुम्हारी आंखों का मैं बन पाता
ऐ काश! कभी मैं बन पाता ।