भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दरिंदा / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:15, 21 जुलाई 2006 का अवतरण
लेखक: भवानीप्रसाद मिश्र
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला
स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला
और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई
मानवता
थोडी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई !