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शब्दों की नदी में / नीरज दइया
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मैंने संभाल रखा है
तुम्हारा दिया हुआ-
गुलाब ।
जब तुमने दिया था
तब मैं नहीं जानता था
उसे लेने का मतलब ।
नहीं जानता था मैं
कि किसी को भी मिल सकता है
चाहे-अनचाहे अचानक
कोई भी गुलाब ।
अब तुम
मेरे अंतस के आंगन में
गुलाब के फूल के साथ जीती हो
और मेरे शब्दों की नदी में
इंतजार के साथ बहती हो ।
अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा