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दूर दूर तक / केदारनाथ अग्रवाल

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दूर-दूर तक
अतल नील से दिक्-प्रसार को चाँपे,
सागर सम्मुख झेल रहा है
द्वन्द्व-द्वन्द्व के कराघात की जल पर पड़तीं थापें,
आदि काल से अब तक-अब तक।

जड़ है लेकिन
बिना पाँव की लहर-लहर से
फेनिल हुआ उछलता,
चित् सा चंचल चमक-चमककर चलता;
बिना प्रान का पानी-पानी
प्रान-प्रान-मय जीवन-गाथा
सस्वर उद्वेलन से कहता;
आदिम तत्व
युगान्तरकारी भाव-बोध से बजता;
तट तक आकर-
तट पर शीश पटकता;
तट से जाकर
अगम-अथाह-असीम
निरामय हुआ, निरंतर
चेतनता के लिए लरजता।

लेकिन ज्योंही
रंग-रहित आकाश पूर्व का
हल्के-गाढ़े रंगों का उजवास पा गया,
और सामने क्षितिज-क्षोर पर
खड़ी हुई दीवार पारदर्शी शीशे की
रंग विरंगे रंगों से रंगीन हो गई;
ज्योंही
एकाकी बादल का गिरि विदारकर
लाल अगिन का
कंचन-वर्णी दिनकर उभरा-
ऊपर चढ़ता हुआ गगन में
लगा बरसने नील-अतल में
कंचन-कुंकुम-केसर-रोली,
त्योंही
सूर्योदय से वंचित
नव अनुरंगित सागर,
अपनी आदिम देह बदलकर-
युगों-युगों की गहरी श्यामलता को तजकर,
बाल-वृंद की लीला करता-
बाल-वृंद का रूप सँवारे;
हर्षित हुआ
हिलोरित होता हुआ लहराता,
कौतुक-क्रीड़ा करता मन को हरता;
हँसते-हँसते रोने लगता;
रोते-रोते गाने लगता;
गाते-गाते
देश-काल का नर्तन करता,
वर्तन से
परिवर्तन का
परिमार्गी बनता।

रचनाकाल: २७-०३-१९७८ (मद्रास)