भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ बैठे बातें करें / रामस्वरूप किसान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ बैठे बातें करें
आ बैठे बातें करें
एक दूजे को देखें

कितने वर्ष बीत गए
साथ-साथ रहते हुए,
कितने क़रीब-क़रीब रहे हम
किंतु देख नहीं सके-एक दूजे को

झूठ नहीं कहता
मैं तो नहीं देख सका
तुम्हारी तुम जानो ।

भोगा अवश्य है
तुम्हारा अंग-अंग
किंतु देख नहीं पाया
ठुड्डी का तिल / जिसका रंग
मेरी अनभिज्ञता के अंधकार में जा मिला

क्षमा करना
अवकाश ही नहीं मिला
ये दांत कब टूट गए तुम्हारे ?
और ये सफ़ेद बाल ?
आ बैठ, ग़ौर से देखूं तुझे
कहीं इसी दौड़-भाग में
यह ज़िंदगी भाग न जाए ।

अनुवाद : नीरज दइया