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ओ मेरे घर / शमशेर बहादुर सिंह
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रचनाकारः शमशेर बहादुर सिंह
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ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्या दिया मुझे
- -ओ मेरी माँ ?
- -ओ मेरी माँ ?
तूने युद्ध ही मुझे दिया
- प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
- प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
- मुझे भगवान दिए कई-कई
- मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !
- मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !
- मुझे भगवान दिए कई-कई
और अद्भुत शक्तिशाली मकानिकी प्रतिमाएँ !
ऐसी मुझे ज़िंदगी दी
ओह
आँखें दीं जो गीली मिट्टी का बुदबुद-सी हैं
और तारे दिए मुझे अनगिनती
- साँसों की तरह
- अनगिनती इकाइयों में
- मुझसे लगातार दूर जाते
- मुझसे लगातार दूर जाते
- अनगिनती इकाइयों में
- साँसों की तरह
मौत की व्यर्थ प्रतीक्षाओं-से !
और दी मुझे एक लंबे नाटक की
हँसी
फैली हुई
दर्शकशाला के इस छोर से उस छोर तक
लहराती कटु-क्रर
फिर मुझे जागना दिया, यह कहकर कि
लो और सोओ
और वही तलवार अँधेरे की
- अंतिम लोरियों के बजाय !
- अंतिम लोरियों के बजाय !
इन्सान के अँखौटे में डालकर मुझे
- सब कुछ तो दे दियाः
- सब कुछ तो दे दियाः
जब मुझे मेरे कवि का बीज दिया कटु-तिक्त।
फिर एक ही जन्म में और क्या-क्या
चाहिए !