भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास/ पृष्ठ 33

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:13, 17 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 320 से 330

तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होइ।321।

कुदिन हितू सो हित सुदिन हित अनहित किन होइ।
ससि छबि हर रबि सदन तउ मित्र कहत सब कोइ।322।

कै लघुकै बड़ मीत भल सम सनेह दुख सोइ।
तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिलें महाबिष होइ।323।

मान्य मीन सेा सुख चहैं सो न छुऐ छल छाहँ।
ससि त्रिसंकु कैकेइ गति लखि तुलसी मन माहँ।324।

कहिअ कठिन कृत कोमलहुँ हित हठि होइ सहाइ।
पलक पानि पर ओड़ियत समुझि कुघाइ सुघाइ।325।

तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलेाचन चारि।
सुरा सेवरा आदरहिं निंदहिं सुरसरि बारि।326।

रूचै मागनेहि मागिबेा तुलसी दानिहि दानु।
 आलस अनख न आचरज प्रेम पिहानी जानु।327।

अमिय गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवाँर।328।

सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहरिं प्रिय बैन।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन।329।

हित पुनीत सब स्वाथिहिं अरि असुद्ध बिनु चाड़।
निज मुख मानिक सम दसन भूमि परे ते हाड़।330।